“हरी ॐ तत्सत”
!!आत्म ज्ञान के होने पर ही एक सम्पूर्ण ज्योतिषी बना जा सकता है !!
नमो देवि महा विद्ये नमामि चरणौ तव सदा ज्ञान प्रकाशं मे देहि सर्वार्थदे शिवे।।
यत्कृपालेश लेशांशलेशलवांशकम,लबध्वा मुक्तो भवेज्जन्तुस्तां न सेवेत को ज।
स्वयमाचरेत शिष्यानाचारे स्थापयत्यापि आचिनोतीह शास्त्रार्थानाचार्यस्तेन कथ्यते॥
चराचरस्मासन्नमध्यापयति य: स्वयम यमादि योगसिद्धत्वादाचार्य इति कथ्यते॥।
जन्महेतु हि पितरौ पूजनीयौ प्रयत्नत: गुरुर्विशेषत: पूज्यो धर्माधर्मप्रदर्शक:॥
ज्योतिषमान जाग्रत जगत की एक दिव्य ज्योति का नाम ही जीवन है। ज्योति का पर्या ज्योतिष या ज्यौतिष है; अथवा ज्यौतिष स्वरूप ब्रह्म की व्याख्या का नाम ज्योतिष है,ऐतरेय ब्राह्मण ने ब्रह्म को क्रियादामृत स्वरूप त्रयी त्रीणी ज्योतिषीं नाम से पुकारा है (५।५।२)
वेद स्वरूप ज्योतिष ब्रह्मरूप ज्योति या ज्योतिष है,जिसका द्वतीय नाम संवत्सर ब्रह्म या महाकाल (महारुद्र) है जो अक्षर ब्रह्म से भी उच्चारित किया जाता है,ब्रह्मसृष्टि के मूल बीजाक्षरो या मूल अनन्त कलाओं को एक एक कर जानना,वैदिक दार्शनिक ज्योतिष या अव्यक्त ज्योतिष कहा जाता है।
इसका दूसरा स्वरूप लौकिक या व्यक्त ज्योतिष है जिसे खगोलीय या ब्रह्माण्डीय ज्योतिष कहा जाता है,व्यक्त या अव्यक्त इन दोनो के आकार दोनों की कलायें एक समान है। एक बिम्ब है तो दूसरा प्रतिबिम्ब है,इस प्रकार वैदिक दर्शन के नौ प्रकार के अहोरात्र या सम्वत्सर ब्रह्म दर्शन का गणित् से लोक व्यवहारिक विवेचन करते हुये आज तक वैदिक ज्योतिष की सुरक्षा मध्य युग के पहिले के आचार्यों ने की है।
वैदिक दर्शन के परिचय के लिये यह वेदान्गी भूत ज्योतिष दर्शन सूर्य के समान प्रकाश देने का काम करता है,अतएव इसे वेद पुरुष या ब्रह्मपुरुष का चक्षु: (सूर्य) भी कहा गया है। ज्योतिषामयनं चक्षु: सूर्यो अजायत,इत्यादि आगम वचनों के आधार से त्रिस्कंध ज्योतिष शास्त्र के के प्रधान प्रमुख सर्वोपादेय ग्रह गणित ग्रन्थ का नाम तक सूर्य सिद्धान्त या चक्षुसिद्धान्त कहा गया है। अथवा अनन्त आकाशीय ग्रह नक्षत्र आकाश गंगा नीहारिका सम्पन्न जो स्वयं अनन्त है,उस ब्रह्म दर्शक चक्षु रूप शास्त्र का नाम ज्योतिष शास्त्र कहा गया है। जिसके यथोचित स्वरूप का ज्ञान प्राचीन भारतीयों को हो चुका था,संक्षेप मे इसी लिये यहां ज्योतिष शास्त्र का इतिहास लिखा जा रहा है।
प्राचीन भारतीय ज्योतिष
भारतीय ज्योतिष का प्राचीनतम इतिहास (खगोलीय विद्या) के रूप सुदूर भूतकाल के गर्भ मे छिपा है,केवल ऋग्वेद आदि प्राचीन ग्रन्थों में स्फ़ुट वाक्याशों से ही आभास मिलता है,कि उसमे ज्योतिष का ज्ञान कितना रहा होगा। निश्चित रूप से ऋग्वेद ही हमारा प्राचीन ग्रन्थ है,बेवर मेक्समूलर जैकीबो लुडविंग ह्विटनी विंटर निट्ज थीवो एवं तिलक ने रचना एवं खगोलीय वर्णनो के आधार पर ऋग्वेद के रचना का काल ४००० ई. पूर्व स्वीकार किया है। चूंकि ऋग्वेद या उससे सम्बन्धित ग्रन्थ ज्योतिष ग्रन्थ नही है,इसलिये उसमे आने वाले ज्योतिष सम्बन्धित लेख बहुधा अनिश्चित से है,परन्तु मनु ने जैसा कहा है कि "भूतं भव्यं भविष्यं च सर्वं वेदात्प्रसिद्धयति"। इससे स्पष्ट है कि वेद त्रिकाल सूत्रधर है, और इसके मंत्र द्रष्टा ऋषि भी भी त्रिकादर्शी थे। वेदों के मंत्र द्रष्टा ऋषि भूगोल खगोल कृष शास्त्र एव राजधर्म प्रभृति के अन्वेषण में संलग्न रहते थे। खगोल सम्बन्धी परिज्ञान के लिये आकाशीय ग्रह नक्षत्रों के सिद्धान्त वेदों में अन्वेषित किये जा सकते हैं। क्योंकि आधुनिक काल की घडियों के अभाव मे मंत्रद्रष्टा ऋषि आकाशीय ग्रह उपग्रह एवं नक्षत्रों के आधार पर ही समय का सुपरिज्ञान कर लेते थे। इसके बारे में भास्कराचार्य ने निर्दिष्ट किया है:-
वेदास्तावद यज्ञकर्मप्रवृता: यज्ञा प्रोक्तास्ते तु कालाश्रयेण,
शास्त्रादस्मात काबोधो यत: स्याद वेदांगत्वं ज्योतिषस्योक्तमस्सात।
शब्दशास्त्रं मुखं ज्योतिषं चक्षुषी श्रोत्रमुक्तं निरुक्तं कल्प: करौ,
या तु शिक्षाऽस्य वेदस्य नासिका पादपद्मद्वयं छन्दं आद्यैर्बुधै:॥
वेदचक्षु: किलेदं स्मृतं ज्यौतिषं मुख्यता चान्गमध्येऽस्य तेनोच्यते,
संयुतोऽपीतरै: कर्णनासादिभिश्चक्षुषाऽगेंन हीनो न किंचित कर:।
तस्मात द्विजैर्ध्ययनीयमेतत पुंण्यं रहस्यं परमंच तत्वम,
यो ज्योतिषां वेत्ति नर: स सम्यक धर्मार्थकामान लभते यशश्च॥
उक्त श्लोक का आशय इस प्रकार है:-
समग्र वेदों का तात्पर्य यज्ञ कर्मो से है,यज्ञों का सम्पादन शुभ समयों के आधीन होता है। अतएव शुभ समय या अशुभ समय का बोध ज्योतिष शास्त्र द्वारा ही होने से ज्योतिष शास्त्र का नाम वेदांग ज्योतिष कहा जाता है। वेद रूप पुरुष के मुख्य छ: अंगों में व्याकरणशास्त्र वेद का मुख ज्योतिष शास्त्र दोनो नेत्र निरुक्त दोनो कान कल्प शास्त्र दोनो हाथ शिक्षा शास्त्र वेद की नासिका और छन्द शास्त्र वेद पुरुष के दोनो पैर कहे गये हैं।
पर पुरुष रूप वेद का ज्योतिष शास्त्र नेत्र स्थानीय होने से ज्योतिष शास्त्र ही वेद का मुख्य अंग हो जाता है।
हाथ पैर कान आदि समाचीन इन्दिर्यों की स्थिति के बावजूद नेत्र स्थानीय ज्योतिष शास्त्र की अनभिज्ञता किसी की नही होती अतएव सर्वशास्त्रों के अध्ययन की सत्ता होती हुयी भी ज्योतिष शास्त्र ज्ञान की परिपक्वता से वेदोक्त धर्म कर्म नीति भूत भविष्यादि ज्ञान पूर्वक धर्म अर्थ काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
इस प्रकार उपरोक्त श्लोक से वेद एवं ज्योतिष शास्त्र का निकटतम सम्बन्ध स्वत: सिद्द है। ग्रह नक्षत्रों के परिज्ञान से काल का उद्बोधन करने वाला शास्त्र ज्योतिष शास्त्र ही है। प्रन्तु उस उद्बोधन के साथ आकाशीय चमत्कार को देखने के लिये गणित ज्योतिष के तीन भेद किये गये हैं।
१. सिद्धान्त गणित
२. तंत्र गणित
३. करण गणित
१.सिद्धान्त गणित
जिस गणित के द्वारा कल्प से लेकर आधुनैक काल तक के किसी भी इष्ट दिन के खगोलीय स्थितिवश गत वर्ष मास दिन आदि सौर सावन चान्द्रभान को ज्ञात कर सौर सावन अहर्गण बनाकर मध्यमादि ग्रह स्पष्टान्त कर्म किये जाते है,उसे सिद्धान्त गणित कहा जाता है।
२. तंत्र गणित
जिस तंत्र द्वारा वर्तमान युगादि वर्षों को जानकर अभीष्ट दिन तक अहर्गण या दिन समूहों के ज्ञान के मध्यमादि ग्रह गत्यादि चमत्कार देखा जाता है,उसे तंत्र गणित कहा जाता है।
३. करण गणित
वर्तमान शक के बीच में अभीष्ट दिनों को जानकर अर्थात किसी दिन वेध यंत्रों के द्वारा ग्रह स्थिति देख कर और स्थूल रूप से यह ग्रह स्थिति गणित से कब होगी,ऐसा विचार कर तथा ग्रहों के स्पष्ट वश सूर्य ग्रहण आदि का विचार जिस गणित से होता है,उसे करण गणित कहते हैं।
तंत्र तथा करण ग्रन्थों का निर्माण वेदों से हजारों वर्षों के उपरान्त हुआ,अत: इस पर विचार न करके वेदों में सिद्धान्त गणित सम्बन्धी बीजों का अन्वेषण आवश्यक होगा।
वेदों में सूर्य के आकर्षण बल पर आकाश में नक्षत्रों की स्थिति का वर्णण मिलता है।
"तिस्त्रो द्याव: सवितर्द्वा उपस्थां एका यमस्य भुवने विराषाट,अणिं न रथ्यममृताधि तस्थुरिह ब्रवीतु य उ तच्चिकेतत॥
(सूर्य ही दिन और रात का कारण होता है) (ऋ.म.१.सू.३५.म-६)
आकृष्णेन रजसा वर्त्तमानो निवेश्यन्नमृतं मर्त्य च हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन.
(सूर्य के आकर्षण पर ही पृथ्वी अपने अक्ष पर स्थिर है) (य.वे.अ.३३ म.४३)
भारतीय आचार्यों का आकर्षण सिद्धान्त का सम्यक ज्ञान था:-
सविता: यन्त्रै: पृथ्वीमरम्णाद्सक्म्भने सविता द्यामदृहत अश्वमिवाधुक्षदधुनिमन्तरिक्षमतूर्ते वद्धं सविता अमुद्रम" (ऋ.म.१० सू.१४९ म.१)
चन्द्रमा के विषय मे भी वेदों में पर्याप्त जानकारी मिलती है। चन्द्रमा स्वत: प्रकाशवान नही है। इस सिद्धान्त की पुष्टि वेद मंत्रों में ही है जैसे:-
अत्राह गोर्मन्वतनाम त्वष्टुरपीच्यम इत्था चन्द्रमसो ग्रहे (ऋ.,म.१.सू.८४ म.१५)
चन्द्रमा आकाश मे गतिशील है,यह नित्यप्रति दौडता है,चन्द्रिका के साथ जो निम्न मंत्र से व्यक्त हो रहा है:-
चन्द्रमा अप्स्वन्तरा सुपर्णो धावते दिवि,न वो हिरण्यनेमय: पदं विदन्ति विद्युतो वित्तं मे अस्य रोदसी (ऋ.म.१.सू.१०५म.१)
चन्द्रमा का नाम पंचदश भी है,जो पन्द्रह दिन में क्षीण और पन्द्रह दिन में पूर्ण होता है,जो निम्न मंत्र में व्यक्त हो रहा है:-
चन्द्रमा वै पंचदश: एष हि पंचद्श्यामपक्षीयते,पंचदश्यामापूर्यते॥ (तैतरीय ब्राह्मण १.५.१०)
वेदों में महिनों की चर्चा भी है,अधिमास के संदर्भ में ऋकसंहिता की ऋचा विचारणीय है:-
वेदमासो धृतव्रतो द्वादश प्रयावत:॥ वेदा य उपजायते। (ऋ.स.१.२५.८.)
तैत्तरीय संहिता में ऋतुओं एवं मासों के नाम बताये गये है,जैसे :-
बसंत ऋतु के दो मास- मधु माधव,
ग्रीष्म ऋतु के शुक्र-शुचि,
वर्षा के नभ और नभस्य,
शरद के इष ऊर्ज,
हेमन्त के सह सहस्य और
शिशिर ऋतु के दो माह तपस और तपस्य बताये गये हैं।
बाजसनेही संहिता में पूर्वोक्त बारह महिनों के अतिरिक्त १३ वें मास का नाम अहंस्पति बताया गया है:-
मधवे स्वाहा माधवाय स्वाहा शुक्राय स्वाहा शुचये स्वाहा नभसे स्वाहा नभस्याय स्वाहेस्वाय स्वाहोर्जाय स्वाहा सहसे स्वाहा तपसे स्वाहा तपस्याय स्वाहांहस्पतये स्वाहा॥ (वा.सं.२२.३१)
तैत्तरीय ब्राह्मण में १३ मासों के नाम इस प्रकार हैं:-
अरुणोरुण्जा: पुण्डरीको विश्वजितभिजित। आर्द्र: पिन्वमानोन्नवान रसवाजिरावान। सर्वौषध: संभरो महस्वान॥ (तैत्तरीय.ब्रा.३.१०.१)
१. अरुण
२. अरुणरज
३. पुण्डरीक
४. विश्वजित
५. अभिजित
६.आर्द्र
७.पिन्वमान
८.उन्नवान
९.रसवान
१०.इरावान
११.सर्वौषध
१२.संभर
१३.सहस्वान
ऋग्वेद में ९४ अवयव कहे गये है:-
चतुर्भि: साकं नवति च नामभिश्चक्रं न वृतं व्यतीखींविपत। बृहच्छरीरो विमिमान ऋक्कभियुर्वाकुमार: प्रत्येत्याहवम॥ (ऋ.म.१.सू.१५५.म.६.)
उक्त मंत्र में गति विशेष द्वारा विविध स्वभाव शाली काल के ९४ अंशों को चक्र की तरह वृत्ताकार कहा गया है। उक्त कालावयवों में १ सम्वतसर २ अयन ५ ऋतुयें १२ माह २४ पक्ष ३० अहोरात्र ८ पहर और १२ आरा मानी गयी हैं। ऋतुओं में हिमन्त और शिशिर एक ऋतु मानी गयी है। इस प्रकार ९४ कलावयवों की गणना की गयी है।
ऋग्वेद में रशियों की गणना निम्न मंत्र से की गयी है:-
"द्वादशारं नहि तज्जराय बर्वर्तिचक्रं परिद्यामृतस्य। आपुत्रा अग्ने मिथुनासो अत्र सप्तशतानि विंशतिश्च तस्थु:॥" (ऋ.म.सू.१६५म.१६)
सत्यामक आदित्य का १२ अरों (माह) सयुंक्त चक्र स्वर्ग के चारों ओर बारह भ्रमण करता है। जो कभी पुराना नही होता है,इस चक्र में पुत्र स्वरूप ७२० (३६० दिन,३६० रात) निवास करते हैं।
ज्योतिष में वर्ष को उत्तरायण एव दक्षिणायन दो विभागों में विभाजित किया गया है,उत्तरायण का अर्थ है बिन्दु से सूर्य का उत्तर दिशा की ओर जाना तथा दक्षिणायन से तात्पर्य है सूर्य का सूर्योदय बिन्दु से दक्षिण की ओर चलना। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार:-
"बसंतो ग्रीष्मो वर्षा:। ते देवा ऋतव: शरद्धेमतं शिशिरस्ते पितरौ………स (सूर्य:) यत्रो तगार्वतते देवेषु र्तहि भवति………यत्र दक्षिणावर्तते पितृषु र्तहि भवति॥
उक्त मंत्र के अनुसार बसंत ग्रीष्म वर्षा ये देव ऋतुयें है,शरद हेमन्त और शिशिर यह पितर ऋतुयें हैं। जब सूर्य उत्तरायण मे रहता है तो ऋतुये देवों में गिनी जाती है। तैत्तरीय उपनिषद में वर्णन है कि सूर्य ६ माह उत्तरायण और ६ माह दक्षिणायन में रहता है:-
"तस्मादादित्य: षण्मासो दक्षिणेनैति षडुत्तरेण". (तै.स.६.५.३)
वैदिक काल में महिनो के नाम मधु और माधव से ही चलते थे,परन्तु कालान्तर में इनके नाम मिट गये और तारों के नाम पर नवीन नाम प्रचलित हो गये। हमारे ऋषियों ने इस बात को स्वीकार नही किया कि ऋतुओं एवं महिनो में सम्बन्ध ना रहे,उन्होने तारों के नाम से महिना बनाना शुरु कर दिया,तैत्तरीय ब्राह्मण मे एक स्थान पर यह स्पष्ट होता है,कि तारों का वेध मास निर्धारण के लिये आरम्भ हो गया था।
वैदिक काल में नक्षत्र केवल चमकीले तारे या सुगमता से पहचाने जाने वाले छोटे तारे के पुंज थे,परन्तु आकाश में इनकी बराबर दूरी न होना एवं तारों का पुंज न रहने से बडी असुविधा रही होगी। इसके अतिरिक्त चन्द्रमा की जटिल गति भी कठिनाई से ज्ञात हुयी होगी। पूर्णिमा के के होने की सही स्थिति का भान न होना भी एक कठिनाई रही होगी। चन्द्रमा का मार्ग आकाश में स्थिर न होना भी एक कठिनाई थी। एक ही तारे को कभी समीप और कभी पास रहने से भी तारों को देखकर माह बनाने में कठिनाई रही होगी। परन्तु यह सभी बातें कालान्तर में स्पष्ट हो गयी होंगी। चन्द्रमा का समीप होना और तारों का दूर होना भी एक कठिनाई रही होगी। सभी कठिनाइयों के कारण ही स्पष्ट हो गया कि तैत्तरीय-ब्राह्मण तक चन्द्रमा का नियमित वेध प्रारम्भ हो गया था।
वेद संहिता ब्राह्मण किसी मे भी महिनों के चैत्र बैसाख आदि नाम नही हैं। ये नाम वेदांग ज्योतिष में जो १२०० ईशा से पूर्व का ग्रंथ है। इस प्रकार यह अनुमान किया जा सकता है कि नवीन मासों के नाम २००० ईशा पूर्व से परिवर्तन में आये होंगे।
प्राचीन काल में सप्ताह का कोई महत्व नही था। सप्ताह के दिनों के नाम का उल्लेख वेद संहिता और ब्राह्मण ग्रंथों में नही है। उस समय पक्ष एवं उनके उपविभाग ही चलते थे।
वैदिक काल में संवत शब्द वर्ष का वाचक था। संवत्सर इद्वत्सर इत्यादि ये संवत्सर के पर्यायवाची शब्द हैं। इसी आधार पर से सूर्य सिद्धांतकार ने काल गणना से प्रसिद्ध नौ विभागों का उल्लेख किया है:-
"ब्राह्मं दिव्यं तथा पित्र्यं प्राजापत्यंच गौरवम। सौरं च सावनं चान्द्रमार्क्षं मानानि वै नव॥"
इस प्रकार अवान्तर के ज्योतिषकाल में वर्षों के नौ भेद कहे गये हैं। जैसे-
१. ब्राह्मवर्ष
२. दिव्यवर्ष
३. पितृवर्ष
४. प्रजापत्यवर्ष
५. गौरववर्ष
६. सौरवर्ष
७. सावनवर्ष
८. चान्द्रवर्ष
९. नाक्षत्रवर्ष
इस प्रकार सिद्धान्त ज्योतिषकाल में शुद्धगणित ज्योतिष विकासोन्मुख हो गया था। वैदिक काल में आज के अर्थ में तिथि का प्रयोग नही होता था। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार जहां चन्द्रमा अस्त होता है और उदय होता है वह तिथि है। इसका मतलब है कि तिथि का अर्थ कुछ और ही है,कालान्तर में तिथि का यह अर्थ हुआ कि जितने में सूर्य का सापेक्ष में चन्द्रमा १२ अंशों आगे चलता है,वही तिथि है। सामविधान ब्राह्मण (२/६,२/७/३/३) मे कृष्ण चतुर्दशी कृष्ण पंचमी शुक्ल चतुर्दशी आदि शब्द आये हैं। क्षय तिथियों का वैदिक काल में उल्लेख नही प्राप्त होता है,शंकर बालकृष्ण दीक्षित मानते है कि प्रतिपदा एवं द्वितीया से तात्पर्य इस काल में पहली दूसरी रातों के लिये प्रयुक्त होता था। कालान्तर मे इनका नाम बदल गया होगा और जो वर्तमान में प्रयुक्त होता है वह हो गया होगा। वैदिक काल में दिन को चार भागों में विभाजित करने की प्रथा थी। पूर्वाह्न मध्याह्न अपराह्न सायाह्न ये नाम थे। दिनों को पन्द्रह भागों को बांट कर उनमे से एक को मुहूर्त कहा जाता था। परन्तु अब मुहूर्त का अर्थ बदला हुआ है,और वह भी फ़लित संयोग के कारण। तैत्तरीय ब्राह्मण (३.११.१) में एक ही जगह पर सूर्य चन्द्रमा नक्षत्र संवत्सर ऋतु मास अर्धमास अहोरात्र आदि शब्द प्रयुक्त हुये है।
इस प्रकार ज्योतिष के गर्भ को जान कर अब अंतःकरण में स्थित परम तत्व को चेतन कर चेतनता को प्राप्त होने का मार्ग समझते हैं !!
अध्याय छटा :---- ( ध्यानयोग )
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः |
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति || १५ ||
युञ्जन् – अभ्यास करते हुए; एवम् – इस प्रकार से; सदा – निरन्तर; आत्मानम् – शरीर, मन तथा आत्मा ; योगी – योग का साधक; नियत-मानसः – संयमित मन से युक्त; शान्तिम् – शान्ति को; निर्वाण-परमाम् – भौतिक अस्तित्व का अन्त; मत्-संस्थाम् – चिन्मयव्योम (भवद्धाम) को; अधिगच्छति – प्राप्त करता है |
भावार्थ:--इस प्रकार शरीर, मन तथा कर्म में निरन्तर संयम का अब्यास करते हुए संयमित मन वाले योगी को इस भौतिक अस्तित्व की समाप्ति पर भगवद्धाम की प्राप्ति होती है |
तात्पर्य:--अब योगाभ्यास के चरम लक्ष्य का स्पष्टीकरण किया जा रहा है | योगाभ्यास किसी भौतिक सुविधा की प्राप्ति के लिए नहीं किया जाता, इसका उद्देश्य तो भौतिक संसार से विरक्ति प्राप्त करना है | जो कोई इसके द्वारा स्वास्थ्य-लाभ चाहता है या भौतिक सिद्धि प्राप्त करने का इच्छुक होता है वह भगवद्गीता के अनुसार योगी नहीं है | न ही भौतिक अस्तित्व की समाप्ति का अर्थ शून्य में प्रवेश है क्योंकि यह कपोलकल्पना है | भगवान् की सृष्टि में कहीं भी शून्य नहीं है | उलटे भौतिक अस्तित्व की समाप्ति से मनुष्य भगवद्धाम में प्रवेश करता है | भगवद्गीता में भगवद्धाम को भी स्पष्टीकरण किया गया है कि यह वह स्थान है जहाँ न सूर्य की आवश्यकता है, न चाँद या बिजली की | आध्यात्मिक राज्य के सारे लोक उसी प्रकार से स्वतः प्रकाशित हैं, जिस प्रकार सूर्य द्वारा यह भौतिक आकाश | वैसे तो भगवद्धाम सर्वत्र है, किन्तु चिन्मयव्योम तथा उसके लोकों को ही परमधाम कहा जाता है |
एक पूर्णयोगी जिसे पराशक्ति का पूर्णज्ञान है जैसा कि यहाँ भगवान् ने स्वयं कहा है (मच्चितः, मत्परः, मत्स्थान्म्) वास्तविक शान्ति प्राप्त कर सकता है | ब्रह्मसंहिता में (५.३७) स्पष्ट उल्लेख है – गोलोक एव निव सत्यखिलात्मभूतः – यद्यपि भगवान् सदैव अपने धाम में निवास करते हैं, जिसे गोलोक कहते हैं, तो भी वे अपनी परा-आध्यात्मिक शक्तियों के कारण सर्वव्यापी ब्रह्म तथा अन्तर्यामी परमात्मा हैं | अतः आत्मज्ञान संपन्न व्यक्ति ही पूर्णयोगी है क्योंकि उसका मन सदैव पराशक्ति के पराभाव में तल्लीन रहता है | वेदों में (श्र्वेताश्र्वतर उपनिषद् ३.८) में भी हम पाते हैं – तमेव विदित्वाति मृत्युमेति – केवल आत्मज्ञान परमात्म को जानने पर ही जन्म तथा मृत्यु के पथ को जीत कर मोक्ष की प्राप्ति संभव है | दूसरे शब्दों में, योग की पूर्णता संसार से मुक्ति प्राप्त करने में है, इन्द्रजाल अथवा व्यायाम के करतबों द्वारा नहीं !!
-: तकनीक :-
. ऋषिरुवाच इदं रहस्यं परममनाख्येयं प्रचक्षते। भक्तोऽसीति न मे किञ्चित्तवावाच्यं नराधिप॥3॥
ऋषि कहते हैं-राजन्! यह रहस्य परम गोपनीय है। इसे किसी से कहने योग्य नहीं बतलाया गया है; किंतु तुम मेरे भक्त हो, इसलिये तुमसे न कहने योग्य मेरे पास कुछ भी नहीं है॥3॥
सर्वस्याद्या महालक्ष्मीस्त्रिगुणा परमेश्वरी। लक्ष्यालक्ष्यस्वरूपा सा व्याप्य कृत्स्नं व्यवस्थिता॥4॥
त्रिगुणमयी परमेश्वरी महालक्ष्मी ही सबका आदि कारण हैं। वे ही दृश्य और अदृश्ष्यरूप से सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त करके स्थित हैं॥4॥
मातुलुङ्गं गदां खेटं पानपात्रं च बिभ्रती। नागं लिङ्गं च योनिं च बिभ्रती नृप मूर्धनि॥5॥
राजन! वे अपनी चार भुजाओं में मातुलुङ्ग (बिजौरे का फल), गदा, खेट (ढाल) एवं पानपात्र और मस्तक पर नाग, लिङ्ग तथा योनि-इन वस्तुओं को धारण करती हैं॥5॥ इस श्लोक एवं इसके अर्थ को पढ़ कर हृदयंगम करें !!
शुद्ध जल से श्नान कर ऋतू एवं सुविधा अनुसार कम से कम कपडे धारण कर निर्धारित आसन पर “सुखासन” में बैठें
१. शिखा बंधन करें या शिखा स्थान पर हाथ रखें गायत्री मन्त्र का उच्चरण करें
२. नाड़ी शोधन + कुम्भक-पूरक-रेचक + सूर्य-भेदी + पूरक प्राणायाम क्रिया पूर्ण करें इस सम्पूर्ण क्रिया में गायत्री मन्त्र मानसिक रूप से निरंतर चलाये रखें !!
3.अब मानसिक रूप से मस्तिष्क के उपरी भाग में चतुर्भुजी माँ भुवनेश्वरी का ध्यान करें माँ अति सुंदर लाल सुनहरे वस्त्र धारण किये हुए हैं मस्तक की बिंदी की चमक करोड़ों सूर्यों को लज्जित करने वाली है दोनों कानो में सुंदर स्वर्णिम कर्णफूल विराजित हैं गले में बहुत सुंदर आभूषण धारण किये हुए हैं मस्तक पर जटाओं के आसन पर योनी-लिंग विराजित है लिंग पर सुंदर सुनेहरा नाग लिपटा हुआ फन फैलाये हुए बैठा है उसके पास लिंग पर अर्ध चन्द्र सुंदर स्वच्छ चांदनी बिखेर रहा है इस विग्रह से छन कर ये सोम-प्रकाश माँ के चरणों में बैठे मेरे गुरुदेव के मस्तक को ज्ञान प्रदान कर रहा है इस प्रकार ध्यान में बैठे हुए गुरुदेव के चरणों में मानसिक दंडवत प्रणाम करें !!
मन्त्र शक्ति का नियम है की किसी भी मन्त्र पूर्ण उर्जा / शक्ति प्राप्त करने के लिए उस मन्त्र एवं मन्त्र के देवता को आत्म सात करना आवश्यक है तभी मन्त्र साधक को उर्जान्विक करके देवत्व प्रदान करता है !! मेरे मत में हम इसे मन्त्र सिध्ही नहीं कहेंगे !!
इस बीज मन्त्र की शास्त्र विधि अनुसार १२५००० की संख्या में जाप करें एक ही समय या नवरात्रों के नों दिनों में या ग्रहण काल में या गंगा जी के मध्य खड़े होकर रुद्राक्ष की माला से जाप करें !!
इसके बाद मात्र “ह्रीं” बीज को लय सहित १२५००० की संख्या में जाप करें यह दोनों क्रियाएं मात्र एक ही बार पूर्ण करनी हैं !! गुरु पुष्य योग में श्री गंगा जी के मध्य खड़े होकर गले में नवग्रह कंठी एवं मस्तक पर विशेष लॉकेट धारण कर विधि सहित एक माला मन्त्र जप सवा लाख मन्त्र जप के बराबर पुन्य फल दाई है !! (श्री मद्देवी भागवत अनुसार)
तत्पश्चात ध्यान क्रिया में प्रवेश करें हमारा शरीर जन्म जन्मान्तर के कर्मों से तरह तरह के ऋणों से बंधा हुआ जन्म लेता है जिस कारन हम ऋणों के रहते आत्म कल्याण नहीं कर पाते शास्त्रों में इन ऋणों से मुक्ति पानें के लिए “पञ्च महायज्ञ” पद्धति( तर्पण,श्राध,बलिवैश्वदेव,अग्निहोत्र,स्वाध्याय एवं ध्यान) एवं बताई गयी है जिसमें कर्मकांड की प्रमुखता है जो आज के परिवेश में संभव नहीं हो पाता अतः इस बीज मन्त्र की महत्ता को समझते हुए मेरा यह अनुभव है की यदि हम “नवार्ण” मन्त्र का सवा करोड़ जपकर लें 27 पाठ श्री दुर्गा सप्तशती जी के पूर्ण कर लें तथा इनका दशांश हवन कर लें तो साधक जन्म जन्मान्तरों के ऋणों से एवं पापों से मुक्त हो जाता है !! इसके बाद साधक “नवार्ण” के भी बीज “ह्रीं” बीज मन्त्र का उक्त विधि से अनुपालन करे साधक में बीज मन्त्र की शक्ति को प्रयोग करने की क्षमता प्राप्त हो जाती है और साधक अन्तश्चेतना को जागृत / चेतन कर सकता है इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं है !!
“ॐ” बीज भी परमात्मा का परम बीज है प्रणव तस्य वाचकः सभी जानते हैं परन्तु इस बीज से त्रेता में एवं द्वापर में कल्याण संभव था क्यूंकि उस समय प्राणी पाप समूहों को साथ लेकर जन्म नहीं लेता था उसका जन्म तो होता ही मुक्ति के लिए था क्यूंकि इन युगों में भगवान् जी ने अवतार लिए उनके प्रभाव से किसी में कोई पाप शेष नहीं रहता था परन्तु आज कलियुग में हम जन्म लेते ही बंधन ( ऋण ) युक्त होते हैं एवं बंधन ( ऋण )युक्त कभी मुक्ति की नहीं सोच सकता जब तक वोह अपने को बंधन ( ऋण ) मुक्त न
कर लें अतः हमें इस मार्ग का अनुसरण करने से ही लाभ होगा !! अब इस पराशक्ति बीज “ह्रीं” के प्रति शास्त्र प्रमाण जानते हैं श्री दुर्गा सप्तशती के अनुसार :-
वियदीकारसंयुक्तं वीतिहोत्रसमन्वितम् ।
अर्धेन्दुलसितं देव्या बीजं सर्वार्थसाधकम् ॥१८॥
एवमेकाकाक्षर ब्रह्म यतयः शुद्ध चेतसः !
ध्यायन्ति परमानंदमया ज्ञानाम्बुराशयः !! १९ !!
वियत – आकाश ( ह ) तथा “ई” कार से युक्त, वीतिहोत्र –अग्नि ( र ) – सहित, अर्धचन्द्र बिंदी से अलंकृत जो देवी महामाया का बीज है वह सभी मनोरथ पूर्ण करनेवाला है ! इस प्रकार इस एकाक्षर ब्रह्म ( ह्रीं )—का ऐसे यति ध्यान करते हैं , जिनका चित्त शुद्ध है , जो निरातिशयानान्द्पूर्ण और ज्ञान के सागर हैं संक्षेप में इसका अर्थ इच्छा – ज्ञान – क्रियाधार , अद्वैत,अखण्ड,सचिदानंद,समरसिभूत,शिवशक्ति स्फुरण है !! 18-19 !!
Aum Aim Hreem Kleem Chamundayei Vicche
This is the Navarna Mantra ,the bija mantra of all three Divine Mothers, Maha Kali, Maha Lakshmi, and Maha Saraswati. So it embodies all three Mothers. In its purest form the mantra is used without the Pranava ( ॐ ) as Aim Hrim Klim Chamundayai Vichche
The syllable Hr ( ह्र ) while chanting must be focussed with the Heart beat
Mantra and Resonance
The effect of sound on various entities is well researched. Technically sound is nothing but frequencies, some we can hear some we cannot, but they do have profound effect. Coming to humans, its researched that frequencies under 7hz create an alpha state, a realm of well being. The earths frequency is calculated at 6.8hz by modern terminology known as Schumann resonance. The Schuman resonance to be brief is an group of electromagnetic frequencies at which earth resonates, 7.83 hZ being the strongest. It is interesting to note that when chanted rhythmically the Pranava or Aum ( ॐ) resonates at 7.83hz. Similarly we can relate certain beej Mantras with the Schumann resonances of earth.
To attain this all first we have to work on sevan chakra therepy for that we have to gain the knowledge of these chakra’s
This All Power Of Meditation is experimented and practised from last 15 years by VEDIC MAHARISHI DR.BALWINDER AGGARWAL(धर्म गुरु)
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